प्रिवेंशन ऑफ़ डैमेज तो पब्लिक प्रॉपर्टी एक्ट क्या है

हमरे देश में विरोध प्रदर्शन के दौरान, हिंसक हो जाते हैं और जिसके फलस्वरूप सार्वजनिक संपत्ति को काफी मायने में नुकसान पहुचंता है । अभी कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पश्चिम बंगाल और असम के कुछ जगहों पर इसी तरह की हिंसा सामने आयी, जहाँ पर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान हुआ है । हमें एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते इस बात को समझाना चाहिए कि इस प्रकार की हिंसा में न केवल सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान होता है, बल्कि टैक्स देने वाले सभी नागरिकों के धन का नुकसान पहुँचता है, सरकार के खर्चों पर अधिक बोझ हो जाता है, अशांति हो जाती है और आम आदमी का जीवन प्रभावित हो जाता है । ऐसे में यह आवश्यक होता है कि हम सार्वजनिक संपत्ति को होने वाले नुकसान से जुड़ी कानूनी बातों को विस्तृत रूप से जाने और समझें ।

अभी कुछ समय पहले जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्रों पर कथित पुलिस ज़बरदस्ती की प्रार्थना पत्र पर सुनवाई के लिए सहमत होते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की बेंच ने दंगों और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान करने पर नाराजगी जताई थी । उन्होंने कहा था,

पुलिस अधिनियम 1861

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“हम जानते हैं कि दंगे कैसे होते हैं। इसे पहले बंद कर दें । हमारे लिए सिर्फ यह तय नहीं कर सकते क्योंकि पथराव किया जा रहा है । हमने काफी दंगे देखे हैं । यह तब तय करना होगा जब चीजें शांत हों । हम कुछ भी तय कर सकते हैं । दंगे रुकने दो। सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट किया जा रहा है । कोर्ट अभी कुछ नहीं कर सकता है, दंगों को रोकें ।” अगर विरोध प्रदर्शन ऐसे ही चले और सार्वजनिक संपत्तियों को नष्ट किया गया तो हम कुछ नहीं करेंगे ।”

सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान को लेकर क्या है नियम / कानून?

सार्वजनिक संपत्ति को होने वाले नुकसान के लिए संसद द्वारा वर्ष 1984 में एक नियम / कानून लाया गया था जिसे सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण करनेवाला अधिनियम, 1984 के रूप में जाना जाता है, इसके तहत कुल 7 धाराएँ हैं, हालाँ कि अभी कुछ समय पहले ही इसमें बदलाव की मांग की गयी है जिसे हम आगे जाने और समझेंगे ।

यह कानून यह बताता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी सार्वजनिक संपत्ति के संबंध में कोई कार्य करके रिष्टि (Mischief) करेगा, उस व्यक्ति को 5 साल तक के कारावास और जुर्माने के साथ दण्डित किया जायेगा [धारा 3(1)]। विचार करने योग है कि इस अधिनियम के तहत ‘रिष्टि’ का वही मतलब है, जो धारा 425, भारतीय दंड संहिता, 1860 में होता है [धारा 2 (क)]। इसके अतिरिक्त अगर कुछ विशेष  तरह की संपत्तियों के संबंध में कोई व्यक्ति कोई कार्य करके नुकसान करता है तो, उसे कम से कम 6 माह  की कठोर कारावास (अधिकतम 5 साल तक का कठोर कारावास) एवं जुर्माने के साथ दण्डित किया जाता है [धारा 3 (2)] ।

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रेप केस में सजा के प्रावधान

धारा 3 (2) के केसों में, इन विशेष प्रकार की संपत्तियों में निम्न प्रकार संपत्तियां शमलित हैं-

  • कोई ऐसा भवन, प्रतिष्ठान या अन्य संपत्ति, जिसका प्रयोग जल, प्रकाश, शक्ति या उर्जा को पैदा करना, बाँटना या प्रदाय के विषय में किया गया है,
  • कोई तेल प्रतिष्ठान,
  • कोई मॉल संकर्म,
  • कोई कारखाना, सार्वजनिक परिवहन या दूर संचार का कोई सामग्री या उसके विषय में उपयोग किया जाने वाला कोई भवन, प्रतिष्ठान या दूसरा संपत्ति. इसके अतिरिक्त अगरअग्नि या विस्फोटक पदार्थ के माध्यम से सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान किसी के माध्यम से रिष्टि की जाती है तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 1 साल के कारावास (अधिकतम 10 साल तक के कठोर कारावास) और जुर्माने से दण्डित किया जाता है [धारा 4] । विचार करने योग है कि इस धारा के तहत धारा 3 की उपधारा (1) एवं (2) के संबंध में बात की जाती है ।

सार्वजनिक संपत्ति क्या है?

इस नियम / कानून में “सार्वजनिक संपत्ति” का अर्थ भी बताया जाता है । अधिनियम की धारा 2 (ख) के तहत, “सार्वजनिक संपत्ति” से रुचिकर है, ऐसी कोई संपत्ति, चाहे वह अचल संपत्ति हो या जंगम (जिसके तहत कोई मशीनरी है), जो निम्न प्रकार के मालिकपन या कब्जे में या नियंत्रण के तहत है –

  • केन्द्रीय सरकार
  • राज्य सरकार
  • स्थानीय प्राधिकारी
  • किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित निगम
  • कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में परिभाषित कंपनी
  • ऐसी संस्था, समुत्थान या उपक्रम, जिसे केन्द्रीय सरकार, सरकारी राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे: क्या मौजूदा कानून है पर्याप्त ?

उच्चतम न्यायालय ने कई अवसरों पर इस मौजूदा नियम / कानून, अर्थात सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण करनेवाला अधिनियम, 1984 को अधूरा पाया गया है, और इसके लिए दिशानिर्देशों के द्वारा कानून में मौजूद कमी को हटाने का प्रयास किया जाता है । वर्ष 2007 में, न्यायालय ने “अलग – अलग ऐसे उदाहरणों के विषय में संज्ञान लिया, जहां पर आंदोलन, बंद, हड़ताल इत्यादि, के नाम पर सार्वजनिक और निजी संपत्तियों का नुकसान बड़े पैमाने पर पहुँचाया गया था” । वास्तव में गुर्जर नेताओं के माध्यम से अपने समुदाय के लोगो को एसटी का दर्जा देने की मांग करने के पश्चात, कई प्रदेशों में हिंसा शुरू हो गयी थी जिसके पश्चात इस नियम / कानून में परिवर्तन का सलाह देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज के. टी. थॉमस और वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरीमन के देख रेख में 2 संगठनों का गठन भी किया था ।

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क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो अधिवक्ता नहीं है, न्यायालय में किसी केस की पैरवी कर सकता है? 

विचार करने योग है कि सेवा मुक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के. टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली संगठन ने जहाँ सार्वजनिक संपत्ति नुकसान निवारण करनेवाला अधिनियम 1984 के नियमों को शासक्त करने के लिए और विरोध प्रदर्शन के समय असभ्यता एवं जंगलीपन के कार्यों के लिए नेताओं को जवाबदार बनाने पर विचार किया, वहीँ वरिष्ठ वकील फली एस नरीमन को ऐसे बंद इत्यादि के मीडिया कवरेज को साथ लेकर उपायों की संस्तुति करने का कार्य सौंपा गया था । सेवा मुक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के. टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली संगठन ने यह जाना है कि राज्य सरकारों के माध्यम से 1984 के इस अधिनियम का कम ही प्रयोग किया जाता है, जबकि उनके माध्यम से अधिकतर भारतीय दंड संहिता, 1860 के नियमों का प्रयोग किया जाता है ।

इसके पश्चात वर्ष 2009 में, In Re: Destruction of Public & Private Properties v State of AP and Ors (2009) 5 SCC 212. के केस में, उच्चतम न्यायालय ने 2 विशेषज्ञ संगठनों की सिफारिशों के आधार पर दिशा-निर्देश दिए गए थे । वर्ष 2009 में आये इस केस के पश्चात से, उच्चतम न्यायालय  के दिशानिर्देश (संपत्ति के विनाश के विरुद्ध) यह हैं कि उस नेता / प्रमुख / आयोजक पर इस विनाश के ज़िम्मेदारी को स्वीकार किया जाता है, जिसने विरोध प्रदर्शन करने का पुकार किया था । संगठन के सलाह को मानते हुए, न्यायालय ने वर्ष 2009 के इस केस में यह बताया था कि अभियोजन को यह सिद्ध करने की जरुरत होनी चाहिए कि किसी समित के माध्यम से बुलाये गए डायरेक्ट एक्शन में सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान हुआ है, और अपराधी ने भी ऐसी आँखों के सामने हुई कार्रवाई में भाग लिया है ।

निर्णय, डिक्री और आदेश में अंतर क्या है

न्यायालय ने यह भी बताया है कि दंगाइयों को नुकसान के लिए  बेहद सख्ती से जिम्मेदारी बनाया जाता है, और नुकसान हुए “क्षतिपूर्ति” करने के लिए, कंपनसेशन लिया जाएगा । न्यायालय ने यह स्पष्ट शब्दों में बतातया था कि, “जहां पर व्यक्ति या लोग, चाहे संबद्ध रूप से या अन्यथा, एक विरोध प्रदर्शन का हिस्सा हैं, जो हिंसक होता है, जिसके फलस्वरूप निजी या सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचता है, तो जिन व्यक्तियों के माध्यम से यह नुकसान होता है, या वे उस विरोध प्रदर्शन का हिस्सा थे या जिन्होंने इसे शुरवात किया है, उन्हें इस नुकसान के लिए कड़ाई से जिम्मेदारी माना जायेगा, और इस नुकसान का समीक्षा सामान्य न्यायालयों के माध्यम से किया जा सकता है या अधिकार को पारित करने के लिए बनाई गई किसी विशेष प्रकरण के माध्यम से किया जा सकता है ।”

दिशानिर्देशों के तहत, “अगर विरोध प्रदर्शन या उसके वजह, संपत्ति का एक बहुत बड़ा नुकसान होता है, तो उच्च न्यायालय अपने आप से, केस कर सकता है और विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई नुकसान की जांच करने और मुआवजा देने के लिए एक मशीनरी स्थापित कर सकता है । जहां पर एक से अधिक प्रदेशों में हिंसा हुई है, वहां पर सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से ऐसी कार्रवाई की जा सकती है । इस नुकसान का जिमेदारी, जुर्म करने वाले आरोपियों पर होगा और इस प्रकार के विरोध प्रदर्शन का आयोजन करनेवाला भी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से निर्धारित कार्यभार के अनुसार उत्तरदायी होंगे ।”

इसके अतिरिक्त इस केस में यह भी बताया गए है कि, सभी केस में, उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय, जैसा भी केस हो, क्षतिपूर्ति का आकलन लगाने और जिम्मेदारी की जांच करने के लिए एक संयुक्त या सेवामुक्त जिला न्याधीश को क्लेम कमिश्नर (दावा आयुक्त) के तौर पर नियुक्त कर सकता है । क्लेम कमिश्नर की मदद के लिए एक असेसर नियोजित कर सकते हैं । नुकसान को संकेत करने और आरोपियों के साथ मिलकर स्थापित करने के लिए, क्लेम आयुक्त और अस्सिटेंट, उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय से, जैसा भी केस हो, मौजूदा वीडियो या दूसरा रिकॉर्डिंग को निजी और लोक  स्रोतों से तलाश करने के लिए निर्देश ले सकते हैं । इसके अतिरिक्त अनुकरण करने योग्य क्षतिपूर्ति (Exemplary damages) एक सीमा तक दिया जा सकता है जो देने वाली क्षतिपूर्ति की राशि के दोगुने से ज्यादा नहीं हो सकता है ।

अगर वकील कागज़ न दे तो क्लाइंट को क्या करना चाहिए

वर्ष 2018 में कोडूनगल्लुर फिल्म समूह बनाम भारत संघ (2018) 10 SCC 713 के केस में न्यायालय  ने वर्ष 2009 के केस में जारी दिशा-निर्देशों के अलावां कुछ दिशा-निर्देश जारी किये पुलिस को जिम्मेदारी को दिशा-निर्देशों में संकलित करते हुए न्यायालय ने कहा-

1) यदि हिंसा के किसी भी मामला से संपत्ति को नुकसान होती है, तो नजदिकी पुलिस अधिकारियों को सूचना देनी चाहिए और वैधानिक समय के अंदर यथा शक्ति अन्वेषण पूरा करना आवश्यक है और उस विषय में एक रिपोर्ट पेश करनी आवश्यक है । रिपोर्ट दर्ज करने और पर्याप्त साधन के बिना वैधानिक समय के अंदर जांच करने में किसी भी असफलता को संबंधित अधिकारी की तरफ से कर्तव्य के विरुद्ध माना जाना आवश्यक है और ऐसे केसों को सही तौर से विभागीय कार्रवाई के माध्यम से आगे बढ़ा सकते है ।

2) क्योंकि नोडल अधिकारी, सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों और दूसरे संपत्तियों के विरुद्ध हिंसा को रोकने के लिए सभी जनपद में पूरी जिम्मेदारी होती है, इसीलिए उसे रिपोर्ट दर्ज करने और / या उसके विषय में अन्वेषण कराने में किसी भी अस्पष्ट को, कथित नोडल अधिकारी की तरफ से निष्क्रियता का केस माना जाता है ।

3) वीडियोग्राफी के विषय में अधिकारी-प्रभारी को सबसे पहले, जिस पुलिस स्टेशन से सम्बंधित मामलों को वीडियो-रिकॉर्ड बनाने के लिए बनाये हुए स्थानीय वीडियो ऑपरेटरों के नाम सूची में से सदस्यों को कॉल करना आवश्यक है । अगर कथित वीडियो ऑपरेटर, किसी कारण से मामलों को रिकॉर्ड करने में सक्षम नहीं हैं या अगर प्रभारी अधिकारी की यह सलाह है कि पूरक जानकारी करनी चाहिए, तो वह स्वयं  वीडियो ऑपरेटरों से रिकॉर्ड करने के लिए कह सकते हैं कि वे मामलों को रिकॉर्ड करें और अगर आवश्यक हो तो कथित मामला के विषय में जानकारी हेतु मीडिया से अनुरोध करें ।

मानहानि का दावा क्या होता है

4) इस प्रकार के जुर्मों के विषय में अन्वेषण / परीक्षण की स्थिति रिपोर्ट, इस प्रकार के परीक्षण (ओं) के परिणामों सहित, राज्य पुलिस की संबंधित आधिकारिक वेबसाइट पर नियमित तौर से अपलोड की जाती है ।

5) किसी भी व्यक्ति (यों) को इस प्रकार के जुर्मों के अपराधों से रिहा करने की दसा में, नोडल अधिकारी को ऐसे संलग्न के विरुद्ध अपील दायर करने के लिए सामाजिक अभियोजक के साथ संयोग करना आवश्यक है ।

मौजूदा समस्या क्या है?

यद्यपि, क्योंकि ऐसा दुर्दशा सामूहिक लोगों के माध्यम से किया जाता है, और ऐसे अधिकतर केसों में, कोई भी पहचानने योग्य नेता / आयोजक नहीं होता है । यहां तक कि उन केसों में, जहां पर बड़े स्तर पर बुलाये गए विरोध प्रदर्शन में पोस्टर पर कई बड़े नाम होते हैं, लेकिन न्यायालय में यह दलील दिया जा सकता है कि ऐसे व्यक्तियों ने कभी भी साफ तौर से ऐसे विरोध प्रदर्शन को नहीं बुलाया है ।

जैसा हमें पता है कि इस अधिनियम की धारा 4 के अंतर्गत, सामाजिक संपत्ति को आग से नुकसान करने की सजा, अधिकतम 10 वर्ष तक की कारावास एवं जुर्माना होता है । परन्तु कुछ समय पहले यह देखा गया है कि इस अधिनियम का प्रयोग न होने से, यह क़ानून अपने मकसद को प्राप्त करने में असफल रहा है ।

गिरफ्तारी के बाद जमानत कैसे मिलती है?

लोगों की संख्या में बढ़ोतरी, उत्पीड़न, उथल-पुथल और लोक संपत्ति को नुकसान होने के बावजूद, न्यायालय में बहुत कम ही लोग अपराधी करार दिए जा पाते हैं । इस प्रकार की मामलों से सम्बंधित साक्ष्य (सबूतों) की सही जानकारी न होना और अन्वेषण प्रक्रिया को सही तौर पर समझ पाने में असमर्थ अधिकारियों के वजह से ऐसे केसों में आरोपियों को दंडित करने में असमर्थता देखि जाती है ।

प्रदेश सरकारों ने नियमबद्ध तौर पर आरोपियों को बुक करने हेतु विशिष्ट नियम / कानून के अलावां भारतीय दंड संहिता के कम सख्त नियमों का सहारा लिया है जोकि सही नहीं है । जैसा कि हम जानते हैं कि बंद, हड़ताल या आंदोलन के समय लोक संपत्ति को नुकसान करने वाले व्यक्तियों या राजनीतिक समितयों के माध्यम से जिस प्रकार से नुकसान पहुंचाई जाती है, उसको देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने भी इस बात पर ध्यान दिया है कि इस प्रकार के कार्यों से जुड़ी पार्टी से नुकसान की जाए, यद्यपि वो भी करने में सरकारें अभी तक समग्र तौर पर असमर्थ रही हैं ।

वकीलों को अपनी कार्यों का विज्ञापन देने की अनुमति क्यों नहीं है ?

कोशी जैकब बनाम भारत संघ WRIT PETITION (CIVIL) NO.55 OF 2017 के केस में, न्यायालय ने यह दोबारा बताया था कि 1984 के इस कानून में परिवर्तन लानी चाहिए, और वास्तव में सरकार को इस कानून में परिवर्तन की ओर कदम उठाने की आवश्यकता है ।

अभी कुछ समय पहले के केस में, जब उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और राज्य के दूसरे हिस्सों में कुछ समय पहले ही संशोधित नागरिकता अधिनियम के विरुद्ध हिंसक आंदोलन हुआ तो उसमे भी हिंसा के चलते लोक एवं निजी संपत्ति को बहुत अधिक मात्रा में नुकसान पहुंचा, जिसपर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह संकेत किया कि संपत्ति को हुए क्षतिपूर्ति की भरपाई करने के लिए उपद्रव एवं हिंसा करने वाले लोगों की संपत्ति की नीलामी की जाएगी । आशा है कि प्रदेश सरकार की यह कार्यवाही, उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों के तहत, सही तौर पर अंजाम दी जाएगी, जिससे इन दिशा-निर्देशों को लागू करने की देश में एक अच्छी शुरुआत हो सके ।

आजीवन कारावास क्या होता है

इस लेख में हमने आप को विरोध प्रदर्शन के समय सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के केसों में क्या कहता है हमारा नियम / कानून इसके संबंध में विस्तृत जानकारी दी है | यदि आप के मन में इस लेख  से सम्बंधित कोई प्रश्न या विचार उठता है तो कमेंट के माध्यम से अवश्य पूछें |

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