तीन शब्द साधारण भाषा में एक जैसे प्रतीत होते हैं जैसे निर्णय, आदेश और डिक्री, परंतु इन शब्दों में बहुत अंतर है । इन तीनों शब्दों में अंतर का उल्लेख हमें सिविल प्रक्रिया अधिनियम 1908 में देखने को मिलता है । इन 3 शब्दों में बहुत से लोग कन्फ्यूज्ड होते हैं, क्योंकि प्रकृति से यह तीनों शब्द एक जैसे प्रतीत होते हैं । न्यायालय में कार्यवाही होते समय लगातार इन शब्दों का प्रयोग किया जाता है । प्रणाली के इन तीन शब्दों के बारे में विस्तृत जानकारी होनी आवश्यक है तथा इस बात का जानकारी होना आवश्यक है कि ये तीनों शब्द अपने अर्थों में क्या महत्व रखते हैं ।
निर्णय
किसी भी सिविल वाद विवाद में विवाधक वास्तविक घटना निर्णय की बुनियाद (नींव) होते हैं । ऐसे वादपत्र पर सिविल न्यायालय की संयुक्त कार्यवाही निर्णय हेतु ही होती है । किसी भी वाद विवाद के विषय पर न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय का संयुक्त निचोड़ है । निर्णय एक बड़ा शब्द है, जिसके तहत आदेश और डिक्री दोनों व्यवस्थित होती है । किसी भी केश के निर्णय में कई आदेश होते हैं और अंतिम समय में एक डिक्री अवश्य होती है ।
सिविल प्रकरण अधिनियम की धारा 2 की उपधारा धारा 9 के तहत,
“निर्णय से मूल अर्थ आज्ञप्ति या आदेश के आधारों पर न्यायाधीशों द्वारा दिए गए बयान से है”
सिविल प्रकरण अधिनियम के तहत दी गई निर्णय की इस परिभाषा से यह प्राप्त होता है कि निर्णय में आदेश और डिक्री दोनों व्यवस्थित होती है । किसी भी सिविल प्रकरण में समय-समय पर न्यायालय को कई आदेश देना पड़ते हैं तथा इन आदेशों को जोड़ कर अंतिम में विवाधक वास्तविक घटनाओं को लेकर न्यायालय द्वारा अपना एक निचोड़ पेश किया जाता है । इस निचोड़ में वाद विवाद के सयुंक्त विषय पर न्यायाधीश अपने बयान रखते हैं जो वास्तविक घटना को साबित करते हैं, उन वास्तविक घटनाओं को साबित मानकर उनके पक्ष में निर्णय दे दिया जाता है । निर्णय पक्ष में होना न होना का कोई महत्व नहीं है, बल्कि महत्व केवल इतना होता है कि न्यायालय वास्तविक घटनाओं के साथ साबित नासाबित के आधार पर अपना बयान करता है उस बयान को ही निर्णय कहा गया है ।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम क्या है
निर्णय के लिए आवश्यक तत्व
केश का संक्षिप्त विवरण
निर्णय देने के लिए किसी भी केश का सम्पूर्ण विवरण जाना जाता है । जैसे जब वाद विवाद को न्यायालय में पेश किया जाता है तो एक वाद पत्र भी रहता है तथा बाद में प्रतिवादी के माध्यम से इस वाद पत्र पर लिखित बयान दिया जाता है । किसी भी वाद में कई वास्तविक घटना होते हैं । इन सयुंक्त वास्तविक घटनाओं को लिख पाना असंभव सा है, इसलिए न्यायाधीश इन सभीवास्तविक घटनाओं को संक्षिप्त करके लिखते हैं और इसे निर्णय में लिखा गया है ।
विचार के लिए प्रश्न
इसका मतलब विवाधक वास्तविक घटनाओं का तय किया जाना है । निर्णय लेने के लिए विवाधक वास्तविक घटना को तय किए जाते हैं, जिन वास्तविक घटनाओं पर सयुंक्त विचारण चलेगा । इन विवाधक वास्तविक घटनाओं का विचार निर्णय लेते समय लिखा जाता है ।
विवाधक वास्तविक घटनाओं पर निर्णय
निर्णय लेते समय किन्हीं दो पक्षकारों के बीच तय किए गए विवाधक वास्तविक घटनाओं पर न्यायालय द्वारा अपना निर्णय सुनाया जाता है । न्यायालय निर्णय लेते समय इन वास्तविक घटनाओं से संबंधित अधिकार और कार्यभार को बताया जाता है ।
निर्णय का कारण अथवा आधार
न्यायालय द्वारा जो निर्णय दिया जाता है, उस निर्णय में निर्णय का कारण और उसका आधार भी दर्शाया जाता है तथा यह निर्णय का निश्चय होता है, कौन से आधारों पर निर्णय दिया जाता है । निर्णय देने का एक प्रारूप (Format) होता है,जिस प्रारूप (Format) में वाद के संक्षिप्त विचार से शुरवात होकर निष्कर्ष तक न्यायाधीशों के माध्यम से अपने बयान रखे जाते है,और अंतिम में एक डिक्री लिखी होती है,जिसमें पक्षकारों के अधिकारों को बताया जाता है ।
आज्ञप्ति (डिक्री)
सिविल प्रकरण अधिनियम के तहत एक शब्द डिक्री है जिसे हिंदी में आज्ञप्ति कहा गया है । साधारण भाषा में डिक्री और निर्णय को एक जैसा समझ लिया जाता है, परंतु डिक्री किसी भी निर्णय का मात्र एक हिस्सा होता है, जो पक्षकारों के अधिकारों का निर्णय करता है । न्यायाधीश इस आज्ञप्ति के प्रारूप (Format) के माध्यम से पक्षकारों के अधिकारों के विषय में अपने बयान करते हैं । इसे पक्षकारों के अधिकारों की रजामंदी के रूप में माना जाता सकता है ।
सिविल प्रकरण अधिनियम की धारा 2 उपधारा 2 के तहत आज्ञप्ति की परिभाषा दी जाती है । जो इस तरह है ।
“आज्ञप्ति से ऐसे न्याय निर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति अभिप्रेत है जो कि वाद के में सभी या किन्हीं विवादास्पद विषयों के संबंध में पक्षकारों के अधिकारों को वहां तक निश्चित रूप से आधारित करता है, जहां तक की उसे अभिव्यक्त करने वाले न्यायालय का संबंध है । यह प्रारंभिक या अंतिम हो सकती है ।
डिक्री तब प्रारंभिक होती है जब बाद में पूर्ण रूप से निपटारा कर दिए जा सकने के पहले आगे और कार्यवाही की जानी है। अंतिम डिक्री वह होती है जो अंतिम रूप से अधिकारों को विनिश्चय कर दे, जब ऐसा न्यायनिर्णय वाद को पूर्ण रूप से निपटा देता है। वह भागतः प्रारंभिक और भागतः अंतिम हो सकेगी ।”
किसी भी आज्ञप्ति (डिक्री) में अनेक आवश्यक बातें होती है
- वाद का निस्तारण किया जा चुका हो |
- वाद का निस्तारण न्यायालय के माध्यम से किया गया हो ।
- यह निस्तारण किसी सिविल या राजस्व न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से किया गया हो ।
- निश्चित रूप से पक्षकारों के अधिकारों का अवधारण हो चुका हो ।
- व्यतिक्रम में वाद के खारिज होने के आदेश की अभिव्यक्ति ना किया गया हो ।
- “छोला राम बनाम मासक” के केश में राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया जाता है कि वाद या अपील को अवधिरूद्ध करने वाला आदेश डिक्री नहीं होता है, क्योंकि इसमें पक्षकारों के अधिकारों का निर्णय नहीं होता है ।
- “रतन सिंह बनाम विजय सिंह” के केश में यह बताया गया है कि विलंब को माफ करने के लिए पेश किए गए आवेदन पत्र को खारिज करते हुए विलंब होने के कारण अवधिरूद्ध अपील को खारिज किए जाने का आदेश डिक्री नहीं होता है ।
- “सिन्नामणि बनाम जी वेट्रीवेल” के केश में यह बताया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश डिक्री की परिभाषा में नहीं माना जाता है ।
- भारत में समय-समय पर उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा डिक्री के विषय में निर्णय दिए जाते रहे है ।
कर्फ़्यू और धारा 144 में क्या है अंतर
किसी भी आज्ञप्ति (डिक्री) के आवश्यक तत्व
आज्ञप्ति के लिए न्याय निर्णयन की औपचारिक अभिव्यक्ति अनिवार्य है । न्याय निर्णयन न्यायालय के सामने चलने वाले किसी वाद में किया जाना अनिवार्य है। न्याय निर्णयन का वाद में के विवादास्पद सम्बन्ध में से सब या किसी एक के विषय में पक्षकारों के अधिकारों का आधारित किया जाना अनिवार्य है । न्याय निर्णय का निश्चय होना अनिवार्य है । ऐसे न्याय निर्णय का किसी सिविल अथवा राजस्व न्यायालय के माध्यम से किया जाना अनिवार्य है । कोई भी डिक्री मुख्य रूप से तीन तरह की होती है ।
- प्रथम डिक्री ।
- अंतिम डिक्री ।
- प्रथम एवं अंतिम दोनों भांति की मिश्रित डिक्री ।
प्रथम डिक्री
ऐसी परिस्थितियां किसी भी केश में हो सकती हैं, जिसमें न्यायालय के माध्यम से प्रारंभिक हस्तक्षेप किया जाना अत्यंत आवश्यक हो जाता है । न्यायालय द्वारा कुछ केशों को तथा कुछ अधिकारों को तय करने हेतु प्रारंभिक डिक्री ऐसी परिस्थितियों में दे दी जाती है । प्रारंभिक डिक्री में निर्णय ही हो यह अनिवार्य नहीं है, किसी केश को तत्काल परिस्थितियों से निपटने के लिए प्रारंभिक डिक्री दी जाती है ।
न्यायालय को प्रथमतः पक्षकारों के अधिकारों पर न्याय निर्णयन करने के लिए प्रारंभिक डिक्री पारित की जाती है । उसके पश्चात उसे अपने हाथों में तब तक कुछ समय के लिए रखना पड़ता है, जब तक कि वह इस हालत में नहीं हो जाता कि वह वाद में अंतिम आज्ञप्ति (डिक्री) लागू करे ।
अधिनियम द्वारा किन केशों में प्रथम आज्ञप्ति (डिक्री) लागू की जाएगी इसका विवरण दिया जाता है, तथा उन केशों को सूचीबद्ध किया जाता है जिनमें प्रथम डिक्री लागू की जा सकेगी ।
- कब्जा किराया या मध्यवर्ती फायदा हेतु वाद ।
- प्रशासनिक वाद ।
- साझेदारी की समाप्ति हेतु वाद ।
- मालिक अभिकर्ता के मध्य हिसाब हेतु वाद ।
- बटवारे और पृथक कब्जे के हेतु वाद ।
- गिरव संपत्ति के विक्रय हेतु वाद ।
- बंधक मोचन के बारे में वाद ।
- “महेश चंद्र बनाम राम रतन” यहां यह वर्णन किया गया है कि प्रारंभिक आज्ञप्ति (डिक्री) केवल ऐसे केशों में ही लागू की जा सकती है, उनके बारे में अधिनियम में स्पष्ट रूप से व्यवस्था की गई है ।
अंतिम आज्ञप्ति (डिक्री)
- जहां न्याय निर्णय केश का पूर्ण रूप से ख़त्म करता है वहां न्यायायल की अंतिम आज्ञप्ति (डिक्री) होती है ।
- कोई आज्ञप्ति (डिक्री) अंतिम आज्ञप्ति(डिक्री) हो जाती है, वह सक्षम न्यायालय के माध्यम से लागू की गई है और उसके खिलाफ कोई अपील संस्थित नहीं की गई हो ।
- किसी एक वाद में एकाधिक प्रथम अथवा अंतिम आज्ञप्ति (डिक्री) नहीं हो सकती अन्यथा किसी भी केशों में केवल एक आज्ञप्ति (डिक्री) अंतिम आज्ञप्ति (डिक्री) होगी।
- अलग – अलग दो परिस्थिति में कोई आज्ञप्ति (डिक्री) अंतिम आज्ञप्ति (डिक्री) हो जाती है।
- उसके खिलाफ अपील के समय का अवसान बिना अपील संस्थित किए ही हो गया हो या उस संबंध का निर्णय उच्चतम न्यायालय की आज्ञप्ति (डिक्री) के माध्यम से हो गया हो ।
- आज्ञप्ति (डिक्री) जहां तक उसे लागू करने वाले न्यायालय का विषय है वाद का पूर्णरूपेण ख़त्म कर देती है ।
- कोई भी आज्ञप्ति (डिक्री) जब किसी बात का पूर्णरूपेण ख़त्म करती है तथा उस आज्ञप्ति (डिक्री) के खिलाफ अपील संस्थित करने की अधिकार नहीं होती है तो ऐसी समस्यायों में आज्ञप्ति (डिक्री) की अंतिम आज्ञप्ति (डिक्री) कहलाती है ।
प्रथम और अंतिम दोनों प्रकार की आज्ञप्ति (डिक्री)
कुछ केशें ऐसे होते हैं, जिन्हें प्रथम और अंतिम विज्ञप्ति (डिक्री) दोनों तरह की आज्ञप्ति (डिक्री) जारी करनी होती है । यह तो आज्ञप्ति (डिक्री) एक ही होती है, लेकिन इसकी प्रकृति ऐसी है कि यह अंतिम एवं प्रारंभिक भी होती है । एक उदाहरण से इसे बताया जा सकता है ।
संविधान किसे कहते है, लिखित संविधान का क्या अर्थ है ?
यदि कोई वाद किसी संपत्ति के कब्जे के बारे में लगाया जाता है, तथा संपत्ति का बटवारा अलग अलग है । ऐसी समस्याओं में किसी एक हिस्से के लिए कोई आज्ञप्ति (डिक्री) लागू कर दी जाती है तथा आगे की कार्यवाही चलती रहती है । जिस हिस्से के लिए आज्ञप्ति(डिक्री) लागू की गई है, यदि यह आज्ञप्ति (डिक्री) अपील योग्य नहीं है तो अंतिम आज्ञप्ति (डिक्री) हो जाएगी लेकिन वाद की अंतिम आज्ञप्ति (डिक्री) नहीं होगी क्योंकि वाद तो अभी चलरही है । यह भागतः अंतिम है और भागतः प्रारंभिक है ।
आदेश
- डिक्री और निर्णय की तरह का एक शब्द और है जिसे आदेश कहते है । सिविल प्रकरण अधिनियम के तहत आदेश को भी परिभाषित किया जाता है इसकी परिभाषा धारा 2 की उप धारा 14 के तहत दी गई है ।
- आदेश का उद्देश्य व्यवहार न्यायालय के निर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति से है जो आज्ञप्ति (डिक्री) नहीं है ।
- इस परिभाषा से पता चलता है कि कोई भी डिक्री नहीं होने वाला व्यवहार आदेश हो जाता है ।
- किसी भी वाद की कार्यवाही में समय-समय पर न्यायालय को आदेश करने होते है इन आदेशों के द्वारा वाद का नियंत्रण किया जाता है । वाद में किसी भी आवेदन पर आदेश किया जा सकता है । वाद के संस्थित होने तथा वाद के निस्तारण होने तक आदेश किसी भी प्रकरण में किया जा सकता है। किसी भी आवेदन पर आदेश किया जा सकता है,सभी आदेश की अपील नहीं होती है ।
- कुछ आदेश अपील के योग्य होते है,केवल वही आदेश जो धारा 104 के तहत आदेश 43 के तहत प्रावधान 1 में वर्णन किया गया है अपील योग होते है ।
- न्यायालय के माध्यम से समय-समय पर आदेश दिए जाते रहते है । उदाहरण के लिए जैसे यदि किसी पक्षकार द्वारा कार्यवाही पर लगे वाद को किसी विशेष तारीख पर बढ़ाने के लिए कोई आवेदन दिया गया है तो ऐसे आवेदन पर न्यायालय उस वाद को उस विशेष तारीख पर डालने की आदेश देता है या नहीं देता है इस के संदर्भ में अपना आदेश देगा,इसे आदेश कहा जाता है ।
- विशेषकर आदेश वाद के नियंत्रण के लिए न्यायालय के माध्यम से दिए जाते है । बार – बार दिए गए आदेशों का संकलन करने पर ही कोई एक निर्णय तैयार किया जाता है । यह माना जा सकता है कि आदेशों का संकलन ही निर्णय होता है लेकिन यह परिभाषा पूर्ण नहीं होता है । आदेश बहुत छोटे वास्तविक घटनाओं के लिए भी हो सकता है तथा कोई भी आदेश किसी एक वाद में किसी समय किसी एक पक्षकार के पक्ष में दिया जा सकता है तथा किसी भी समय उसी पक्षकार के खिलाफ हो सकता है ।
- आदेश पक्षकारों के अधिकारों का अंतिम रूप से निर्णय कर भी सकता है और नहीं भी करता है ।
- आदेश आज्ञप्ति (डिक्री) की तरह प्रारंभिक और अंतिम प्रकार का नहीं होता है ।
इस लेख में हमने आप को निर्णय, डिक्री और आदेश में अंतर क्या है इसके विषय में विस्तार से जानकारी दी है अगर आप के मन में इस लेख से संबंधित कोई प्रश्न हैं तो कमेंट के द्वारा पूछ सकते हैं हम आप के द्वारा की प्रतक्रिया का आदर करेगें |