प्रमुख कानूनी शब्दावली

भारतीय कानून प्रणाली व्यवस्था में सभी लोगों के सामने ऐसे कई शब्द आते हैं, जो शब्द तो दो होते है परंतु अर्थ एक जैसे समझ में आते हैं, लेकिन उन शब्दों के मतलब बहुत अलग – अलग होते हैं । कानूनी प्रकरण से दूर रहने वाले व्यक्ति या फिर ऐसे व्यक्ति जिनका अदालत इत्यादि से कोई सम्बन्ध न हो वह व्यक्ति इन शब्दों से भ्रमित हो जाते हैं । बहुत से व्यक्ति तो पूरा जीवन उन शब्दों को पढ़ने, देखने और प्रयोग करते रहते हैं, उसके बाद भी उन शब्दों के बारे में उपयुक्त जानकारी नहीं ले पाते हैं । ये भ्रमित करने वाले शब्द होते हैं । आप जानकारी के कमी से यह नहीं बता पाते कि इस व्यंजन के लिए यह शब्द सही होगा या फिर वह शब्द सही होगा, दो शब्दों के बीच भ्रम जैसा तत्व उत्पन्न हो जाते है ।

शब्दों में कभी कभी बात भी रह जाती है । सही मतलब निकालने वाली बात हो ही नहीं पाती और लोग उसके जगह पर गलत अर्थ के शब्द को समझ लिया जाता है । प्रणाली के ज्ञान में प्रणाली के शब्दों की उपयुक्त जानकारी नितांत महत्वपूर्ण स्थान रखती है । शब्दों के विषय में ठीक जानकारी होना आवश्यक है । आम लोग से लेकर प्रणाली व्यवसायी को भी शब्दों के सही  मतलबों और टर्मिनोलॉजी की आवश्यकता होती है । इस लेख में ऐसे ही तमाम शब्दों के विषय में विस्तृत जानकारी दी जा रही है ।

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बिल और अधिनियम

आज के समय में राज्य के माध्यम से अपने राज्य के अंदर राज्य के नियंत्रण और राज्य के नागरिक तथा दूसरे नागरिकों के लिए निर्देशों को प्रणाली कहा जाता है । भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 में प्रणाली को बताया गया है, जिसमे अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ि या प्रथा विधि माना जाता है ।

बिल संसद संबंधी प्रणाली का शैशव काल होता है । कोई अधिनियम बिल होने के पश्चात ही अधिनियम का रूप ग्रहण कर लेता है । एक प्रकार से कहा जाता है कि जब बिल बहुमत प्राप्त कर लेता है तो वह अधिनियम बन जाता है । बिना यथेष्ट बहुमत हासिल किए कोई बिल अधिनियम का रूप धारण नहीं करता है । अगर बिल बहुमत हासिल नहीं कर सकता है तो यह कह सकते है कि अधिनियम अपने शैशव कार्य मे ही मर गया । बिल यथेष्ट सदनों और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करने से और मोहर लगने पर ही अधिनियम होता है । बिल पर जैसे ही राष्ट्रपति अपनी मोहर लगाते हैं, वह अधिनियम होकर राज्य में प्रणाली बनकर पारित हो जाता है । बिल को प्रणाली नहीं बताया जा सकता, क्योंकि बिल आदेशात्मक तौर पर राज्य में पारित नहीं होता है वह संसद में ही रहता है । बिल का विकसित तौर पर अधिनियम कहा जाता है ।

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धारा और अनुच्छेद

यद्यिप समझदार व्यक्ति अनुच्छेद और धारा का अंतर बहुत अच्छे से जानते हैं । धारा और अनुच्छेद आम व्यक्तियों के लिए बहुत अधिक भ्रमित करने वाले शब्द हैं । आम व्यक्तियों के साथ बहुत से नेताओं को भी यह शब्द भ्रमित कर देते हैं । वह समझ ही नहीं सकते कि धारा किसे कहें और अनुच्छेद किसे कहें ।

जैसे कि आपने कश्मीर के बारे में सुना होगा कि धारा 370 पत्रकारों के माध्यम से भी 370 के साथ में धारा शब्द प्रयोग कर दिया जाता था, लेकिन यह धारा शब्द बिल्कुल सही नहीं है, यह अनुच्छेद 370 है ।

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धारा

संसद के माध्यम से जो साधारण नियम बनाए गाये हैं, उनमें विषयों को अलग – अलग करने  के लिए धारा शब्द प्रयोग किया गया है । धारा के साथ में उपधारा भी लायी गयी है । धारा को अंग्रेजी में ‘सेक्शन’ कहा गया है । धारा अधिनियम का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है । किसी भी अधिनियम में मुख्यतः धारा ही प्रयोग में लाई जाती है, लेकिन कुछ अधिनियम में आदेश और नियम भी पाये जाते हैं ।

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अनुच्छेद

अनुच्छेद सभी संविधान में पाये जाते हैं । आज के समय में कोई भी संविधान बिना अनुच्छेद के शायद ही पूरा होता होगा । संविधान को अलग – अलग हिस्सों में बांटा गया है तथा यह हिस्सा अनुच्छेद में बंटे होते हैं, लेकिन अलग – अलग हिस्सा के लिए अलग – अलग अनुच्छेद नहीं होते हैं । अनुच्छेद सीधे तौर पर चलते हैं जैसे अनुच्छेद 1 से शुरवात होता है और अनुच्छेद 400 पर संविधान ख़त्म होता है ।

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जनपद एवं सत्र न्यायालय

भारत में लगभग सभी जिलों की न्यायालय के बाहर जिला एवं सत्र न्यायालय लिखा हुआ होता है । इस न्यायालय को जिला न्यायालय के नाम से जानते है । ये दोनों न्यायालय एक नहीं हैं, इनके मतलब अलग अलग होते हैं, लेकिन व्यक्ति एक ही होता है । सामान्यतः हम इन दोनों न्यायालय को एक ही न्यायालय माना करते हैं ।

जनपद न्यायालय

अगर किसी सिविल केस को सुना जाता है तो सुनने वाला न्यायालय जिला न्यायालय कहा जाता है, अर्थात जनपद का सबसे बड़ा न्यायालय जो किसी भी सिविल केस में सुनवाई करने का अधिकार रखता है  ।

सत्र न्यायालय

सत्र न्यायालय में आपराधिक केस कि सुनवाई कि जाती है अर्थात जिले का सबसे बड़ा आपराधिक केसों को सुनने वाला न्यायालय सत्र न्यायालय ही होता । जैसे यदि किसी अपराधी पर भारतीय दंड अधिनियम की धारा 302 के तहत केस चलेगा तो उसकी सुनवाई सत्र न्यायालय में ही की जाएगी,  क्योंकि सत्र न्यायाधीश को ही मृत्यु दंड और आजीवन कारावास देने की अधिकारिकता होती है ।

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सिविल जज और मजिस्ट्रेट और कार्यपालक मजिस्ट्रेट

मजिस्ट्रेट और सिविल जज एक ही व्यक्ति है । यह केसों के आधार से पता किया जाता है कि वह केस सिविल है या आपराधिक ।

जब किसी सिविल केस को किसी जज द्वारा सुना जाता है तो उसे सिविल जज कहते हैं । यह सिविल जज प्रथम और द्वितीय श्रेणी होते हैं । केसों को सुनने की अधिकारिकता और कोई आदेश सुनाने के अधिकार के आधार पर श्रेणी निर्धारित की जाती है । किसी भी जिला जज से नीचे सिविल केसों को सुनने वाला जज सिविल जज कहलाता है ।

मजिस्ट्रेट

अगर यही जज किसी आपराधिक केस को सुनता है तो वह मजिस्ट्रेट कहा जाता है । मजिस्ट्रेट और सिविल जज का निर्धारण केस की नेचर के आधार पर किया जाता है । कार्यपालक मजिस्ट्रेट- यह कार्यपालिका का एक भाग है पर इसे सेमी ज्यूडिशियल पद भी कही जाती है, क्योंकि इनमे कुछ न्यायिक अधिकार और कर्तव्य भी रखते हैं ।

ज़मानती और दोषमुक्त

बहुत से केसों में ज़मानती अपराधी को दोषमुक्त मान लिया जाता है । ज़मानती और दोषमुक्त में अंतर होता है और यह अंतर बहुत बड़ा अंतर होता है ।

भारत में आपराधिक विधान संबंधी व्यवस्था उदारतापूर्वक है । यहां पर किसी भी अपराधी को ज़मानत पर छोड़े जाने के नियम बनाये गए हैं । ज़मानती और गैर-ज़मानती जुर्मों का बंटवारा किया गया है ।

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ज़मानती

ज़मानती का मतलब होता है ऐसा व्यक्ति जिस पर कोई केस चल रहा है और न्यायलयों द्वारा उस व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया गया है तथा उसके अपराध सावित होने पर उसे दोबारा हिरासत में ले लिया जाएगा ।

दोषमुक्ति

दोषमुक्ति का मतलब है अपराधी को विचारण में सभी प्रकार के जुर्मो से अपराध मुक्त कर दिया गया तथा अपराधी अब अपराध मुक्त है, जितने जुर्म उस पर लगाये थे वह कोई भी सावित नहीं हो पायें हैं ।

अपराधी और दोषसिद्ध

अपराधी और दोषसिद्ध में भी अंतर होता है । अपराधी वह व्यक्ति है, जिस पर राज्य द्वारा किसी जुर्म में केस चलाया जा रहा है । हमारे यहां भारत में किसी भी व्यक्ति पर अपराध निर्धारित होना तो बहुत दूर की बात है एफआईआर दर्ज होने के पश्चात ही उस व्यक्ति को दोषी मान लिया जाता है, जबकि भारत में अपराधी को दोषसिद्ध व्यक्ति मानाने के लिए एक लंबी प्रक्रिया है । ज्यादातर भारतीय विचारण जैसी किसी चीज़ को जानते ही नहीं हैं ।

क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो अधिवक्ता नहीं है, न्यायालय में किसी केस की पैरवी कर सकता है? 

दोषसिद्ध

दोषी वह व्यक्ति है जिस पर अपराध लगने के पश्चात विचार हो जाने के बाद किसी भी न्यायालय के माध्यम से दोषी घोषित कर दिया जाता है अर्थात अपराधी पर लगे सभी अपराध सावित हो चुके हैं और वह जुर्म करने वाला व्यक्ति मान लिया गया है तथा उस जुर्म  के लिए उसे दंड सुना दिया जाता है ।

राज्य द्वारा अपराध लगाना बहुत आसान होता है । अपराध निर्धरित न्यायालय द्वारा किये जाते हैं । राज्य पुलिस या अन्य जांच एजेंसी के माध्यम से अपना अंतिम प्रतिवेदन न्यालय के सामने प्रस्तुत कर देता है । अपराध निर्धरित करना अदालत का काम होता है । अपराध लगते ही व्यक्ति को दोषी नहीं मानना चाहिए ।

संसद और सांसद

संसद के माध्यम से लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधान निर्माण का कार्य किया जाता है । भारतीय संसद लोकसभा राज्यसभा और राष्ट्रपति से मिलकर बनती है । यह तीनों संसद के भाग है । इस संसद के लोकसभा सांसद और राज्यसभा के दोनों सदनों के सदस्यों को सांसद कहा गया है ।

क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो अधिवक्ता नहीं है, न्यायालय में किसी केस की पैरवी कर सकता है? 

नगर निगम और नगर पालिका

इन दो शब्दों से भी आम लोगों को बहुत काम होता है । इन  दो शब्द का जीवन में अहम भूमिका है । आधुनिक समय में  इन दोनों शब्दों को एक जैसा माना जाता है, जबकि शब्द और उसके अर्थ दोनों में बहुत अंतर होते है ।

वैसे तो भिन्न – भिन्न राज्यों के माध्यम से अपने अपने निकाय विधान बनाये गाये हैं, लेकिन फिर भी एक व्यवस्थित नियम / कानून है कि 20 हज़ार से ऊपर आबादी वाले कस्बो में और दो लाख से कम आबादी के शहरों में नगर पालिका बनायी गयी है ।

दो लाख से ऊपर आबादी वाले शहरों में नगर निगम बनाई गयी है । नगर निगम और पालिका के नियम भिन्न – भिन्न  है तथा अधिकार कर्तव्य भी भिन्न – भिन्न अबनाये गए हैं ।

शमनीय और गैर शमनीय

जुर्म दो प्रकार के होते हैं । पहला शमनीय और दूसरा गैर शमनीय । जिन जुर्मों को दंड प्रक्रिया अधिनियम  के तहत मध्यस्ता के लिए कहा गया अर्थात जिन में मध्यस्ता किया जा सकता है वह जुर्म  शमनीय है । जिन जुर्मों में मध्यस्ता नहीं किया जा सकता अर्थात जिनमे न्यायालय के माध्यम से या तो अपराध मुक्त किया जाएगा या अपराध सावित किया जाएगा, परन्तु जुर्म का शमन नहीं होगा । जैसे भारतीय दंड संहिता के तहत धारा 302 और 376 इत्यादि के जुर्म बहुत से केसों में लोग हत्या जैसे जुर्म को भी शमनीय मान लेते हैं |

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इस लेख में हमने आप को कानून के एक जैसे शब्द और उनके भिन्न – भिन्न अर्थ के बारे में विस्तार से जानकारी दी है अगर आप के मन में इस लेख से संबंधित कोई प्रश्न हैं तो कमेंट के द्वारा पूछ सकते हैं हम आप के द्वारा की प्रतक्रिया का आदर करेगें |

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