भारतीय साक्ष्य अधिनियम क्या है

मृत्युकालिक कथन (Dying declaration) का अत्यधिक महत्व है यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम में बताया गया है | मृत्युकालिक कथन का मतलब होता है यानि कि मरने के समय दिया गया बयान । साक्ष्य (प्रमाण) अधिनियम की धारा 32(1) के तहत मृत्युकालिक कथन का उल्लेख किया गया है तथा मरने के समय के कथन को प्रमाण के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। साक्ष्य (सबूत) अधिनियम से सम्बंधित तथ्य क्या माने जायेंगे | जिसकी जानकारी एक पूरे  अध्याय में विस्तारित की गई है, यह धारा यह बताने का प्रयास करती है कि कोई भी कथन यदि मृत्युकालिक कथन होता है तो उसे मुख्य साक्ष्य के रूप में माना जाएगा।

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मृत्युकालिक कथन – मरते समय का बयान (Dying declaration)

जब किसी व्यक्ति का अंतिम समय होता है, वह ईश्वर के समीप जाने वाला होता है, तो वह समय ऐसा समय माना जाता है कि वह व्यक्ति अंतिम समय में झूठ बोलकर नहीं मरता है, जिसे पूर्णतया सच माना जाता है।

इसके अलावा मृत्युकालिक कथन को केवल मृत्यु के वक्त कहा गया कथन ही नहीं माना गया है तथा इसमें कुछ और बातों को भी शामिल किया गया है तथा समय-समय पर भारत के न्यायालय से दिए गए आदेश के आधार पर मृत्यु कालिक कथन को विस्तारपूर्वक बताया गया है तथा इस मृत्यु कालिक कथन में समय-समय पर बदलाव होते रहतें है ।

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किसी गैरहाजिर व्यक्ति का बयान तब सिद्ध किया जा सकता है कि उस व्यक्ति के मरने के विषय में हो या एक दूसरे के प्रति उत्तम आचरण के परिस्थिति के बारे में किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप उस व्यकित की मृत्यु हुई और उस मामले में व्यक्ति के मृत्यु का वजह प्रश्नगत है । ऐसा कथन प्रत्येक ऐसी कार्यभार वहन करनेवाला में युक्त होगा जिसमे उस व्यकित के मृत्यु का वजह प्रश्नगत हो ।

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भारतीय साक्ष्य (सबूत) अधिनियम एवं धारा 32(1) मरने वाले व्यक्ति के कथन की अवधारणा

हमारे यहाँ इंग्लिश प्रणाली में मरते समय के बयान का महत्व है । एक बहुत पुराने मुकदमे में देखने को मिला है “आर बनाम वुडकॉक” में समझया गया है । एक पति पर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप   था । हत्या की घटना के बारे में पत्नी का बयान एक मजिस्ट्रेट ने लिया । बयान के  24 घंटे के उपरांत  स्त्री की मौत  हुई, पत्नी ने  बार-बार बयान में बताया कि उसका पति उसके साथ क्रूरता का व्यवहार करता था । अंतिम समय  तक होश में रही और अपने  साथ होने वाले विघटन की कोई ज़िक्र भी नहीं कर रही थी ।

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इसका सांविधिक नतीजा धारा 32(1) स्वतः है,और न्यायिक साक्ष्य (सबूत) प्रिवी कौंसिल का एक घटना है जिसे पाकला नारायण स्वामी बनाम सम्राट का घटना कहते है । इस घटना में मरने वाले व्यकित ने पाकला नारायण स्वामी नामक व्यक्ति से कुछ रुपए कर्ज (उधार) लिए थे परन्तु वह इन उधर लिए रूपये को अदा नहींकर पा रहा था। पाकला नारायण स्वामी ने उस व्यक्ति को कर्ज न अदा कर पाने पर समय – समय पर धमकियां दे रहे थे | पाकला नारायण स्वामी ने पत्र के माध्यम से ऐसी धमकियां दी थी जो कि मरने वाले व्यकित की पत्नी के पास पत्र उपलब्ध थे ।

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मरने वाला व्यकित जब पाकला नारायण स्वामी से मिलने शहर जा रहा था तो उस समय मृतक अपनी पत्नी को बता कर गया था कि वह पाकला नारायण से मुलाकात करने  उसके घर बरहामपुर जा रहा है । कुछ समय उपरांत मृतक की लाश (Dead Body ) एक ट्रंक द्वार प्राप्त हुई । मुकदमे में पाकला नारायण स्वामी को न्यायालय ने अपराधी माना क्योंकि जो ट्रंक द्वारा मृतक की लाश (Dead Body ) प्राप्त हुई थी उसे पाकला नारायण स्वामी के जरिये खरीदा गया था तथा मृतक अपनी पत्नी को यह बात अपने अंतिम समय में बता कर गया था कि वह बरहामपुर पाकला नारायण स्वामी के पास मिलने जा रहा है । इस बयान को मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यकिय की कथन माना गया है ।

मरने के वक्त ही कथन का होना अनिवार्य नहीं  है

मृत्यु कालिक यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन को केवल इस आधार पर निरस्त नहीं किया जा सकता कि मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यकित की कथन मरने के वक्त नहीं कहा गया था । मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यकित की कथन किसी भी वक्त  कहा जा सकता है तथा इस कथन का संबंध मामला और समस्याओं से होना आवश्यक है ।

उच्चतम न्यायालय का एक केश इस घटना में है जिसे शरद बिरदी चंद्र शारदा बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के नाम से जाना जाता है । उच्चतम न्यायालय ने संकेत किया है कि इस कथन का संबंध आवश्यक रूप से मरने के कारण एवं मृत्यु पैदा करने वाले संव्यवहार की समस्याओं से होना चाहिए। इस घटना में एक विवाहित स्त्री की विवाह के 4 माह के उपरांत ही ससुराल में मृत्यु हो गयी ।

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उन चार माह में वह विवाहित स्त्री अपनी दशा के विषय में अपनी बहन तथा अन्य सगे संबंधियों को समय – समय पर पत्र लिखती रहती थी । उच्च न्याला निर्णय किया पत्र धारा 32(1) के तहत सही रूप से बहुत उचित थे क्योंकि वह मृत्यु के बारे में उल्लेख कर रहे थे ।

मणिबेन बनाम स्टेट ऑफ गुजरात एआईआर 2007 उच्चतम न्यालय  1932 के घटना में बताया गया है कि मृत्युकालिन यानि मरने वाले व्यकित की घोषण की ग्राह्यता के लिए आवश्यक नहीं कि मृत्यु ऐसी घोषणा के तुरंत बाद हो जाए । मात्र इस आधार पर कि मृत्यु कुछ दिनों उपरांत हुई है, ऐसे कथन को  बहिष्कृत नहीं किया जा सकता ।

पुष्टि करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है

किसी भी मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यकित की कथन में पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती है। शांति बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि मृत्यु कालिक यानि मरने वाले व्यकित की कथन में पुष्टि आवश्यक नहीं होती है,क्योंकि हो सकता है कि स्वतंत्र गवाह पुष्टि करने के लिए  समय पर मिल ही ना पा रहे हों ।

परंतु मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यकित की कथन को यक़ीन करने से पहले विशेष सावधानी तथा सतर्कता बर्तनी चाहिए । जब कथन के विषय में यह लगे कि वह विश्वसनीयता के साथ था तो इसके आधार पर दोषसिद्धि की जा सकती है । मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन ऐसा होना चाहिए जिससे विश्वाश हो और यह ना लगे कि मृतक को लालच देकर सिखा पढ़ा दिया था ।

पुलिस के सामने किया गया मृत्युकालीन यानि मरने वाले व्यक्ति का बयान 

कोई  भी मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन पुलिस के सामने भी किया जा सकता है तथा पुलिस इस मृत्युकालिक  यानि मरने वाले व्यकित की कथन को एफआईआर रिपोर्ट में दर्ज कर सकती है । के रामाचंद्र रेड्डी के घटना में एक व्यक्ति थाने में पहली सूचना रिपोर्ट लिखाने आया । वह व्यक्ति गंभीर तरह से घायल था, रिपोर्ट लिखाने के पश्चात 1 घंटे में उस व्यक्ति की मृत्यु हो गई । न्यायालय के जरिये  इस कथन को उसका मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन माना गया एवं उसे बहुत उचित माना गया ।

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बचाव पक्ष ने तर्क प्रस्तुत की थी कि यह बयान पुलिस के समक्ष किया गया है, इसलिए इस बयान को मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन नहीं माना जाए लेकिन उच्चतम न्यायालय ने एक अपने अन्य निर्णय के तहत मृत्युकालीन यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन का मात्र इस आधार पर बहिष्कृत करने से मना कर दिया कि वह पुलिस ने दर्ज किया गया था । यह आवश्यक नहीं है कि कोई भी मृत्युकालिक  यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन मजिस्ट्रेट द्वारा ही मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किया जाए ।

इशारों से भी मृत्युकालिक  यानि मरने वाले व्यकित की कथन किया जा सकता है

कोई मृत्यु कालिक यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन इशारों से भी किया जा सकता है, एवं यह कथन मान्य होगा । यह इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण न्यायपीठ में क्वीन बनाम अब्दुल्लाह के घटना में वर्णन किया था ।

इस घटना में एक लड़की का गला काटकर मारा गया था और इसलिए  वह लड़की होश रहते  हुए भी  बोल नहीं पा रही थी।  उस लड़की ने हाथों के इशारों से अभियुक्त का नाम समझाया इसे मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन माना गया ।

यदि मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन करने वाला जीवित रह जाए तो उस परिस्थिति में क्या प्रक्रिया होगा

अगर मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यक्ति की कथनकर्ता जीवित बच जाए तो उसका कथन मृत्युकालिक  यानि मरने वाले व्यकित की कथन नहीं माना जाता है । वह एक ऐसा कथन होगा जिसे अन्वेषण के समय किया गया । उसका व्यकित का कथन यदि मजिस्ट्रेट के सामने किया गया हो तो कथनकर्ता साक्षी के कटघरे में आकर बयान देता है तो उसके न्यायालय के काम में किए गए कथन को उसके पहले वाले कथन से भर पूर किया जा सकता है या हटाया जा सकता है ।

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धारा 157 इस बात की अनुमति देती है कि किसी वास्तविक घटना के बारे में किसी साक्षी (सबूत) का भूतपूर्व कथन जो ऐसे अधिकारी के समक्ष किया गया हो जो उस वास्तविक घटना के खोज के लिए विधिक रूप से सक्षम हो ऐसे कथन को सिद्ध किया जा सकता है ।

मानसिक  तौर से ठीक न होने वाले व्यक्ति के मृत्युकालिक  यानि मरने वाले व्यक्ति की कथन पर विश्वास नहीं किया जा सकता

एक घटना में यह बताया गया है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा जो पागल या विकृत चित्त है कोई मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यकित की कथन किया जा रहा है तो जिस समय वह कथन कर रहा है उस समय उस व्यक्ति की मानशिक स्थिति ठीक होनी चाहिए, इसका प्रमाण (सबूत) प्राप्त कराना होगा तब ही मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यकित की  कथन को माना जाएगा ।

मृत्युकालिक कथन  यानि मरने वाले व्यकित की एक महत्वपूर्ण साक्ष्य (सबूत) है तथा यदि इस बयान को अभियोजन के माध्यम से सिद्ध कर दिया जाता है तो यह किसी भी घटना में अभियोजन पक्ष को मजबूत करता है । ऐसे कई घटना हैं जहाँ पर यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मृत्युकालिन यानि मरने वाले व्यकित की  घोषणा पर न्यायायल को यदि सम्पूर्ण रूप से यकीन हो जाता है तो इसके आधार पर अपराधी को दोषसिद्ध किया जा सकता है ।

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दर्शन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (एआईआर 1983 सुप्रीम कोर्ट 554) के घटना में बताया गया है कि मृत्युकालीन यानि मरने वाले व्यकित की घोषण के आधार पर दोषसिद्धि के लिए बयानों को इतना अंत: विश्वसनीय होना चाहिए , जिस पर पूर्ण विश्वास किया जा सके ।

केपी मणि बनाम तमिलनाडु राज्य (2006) 3 SCC घटना  में उच्चतम न्यालय  ने कहा कि सिर्फ़ मरने के  कुछ समय पहले के बयान के एकमात्र आधार पर भी दोषी सिद्ध किया जा सकता है लेकिन यह पूर्ण विश्वसनीय होना चाहिए ।

मृत्युकालिक  यानि मरने वाले व्यकित की कथन का कोई प्रारूप (फॉर्मेट) नहीं है

अलग – अलग उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के कई घटना में मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यकित की कथन के निश्चित प्रारूप (फॉर्मेट) के विषय में प्रश्न उठा । इस पर यह माना गया कि न तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) और न ही सुप्रीम कोर्ट का कोई निर्णय ही कोई प्रारूप (फॉर्मेट) के विषय में बताया है जिसके अनुरूप किसी व्यक्ति का मृत्यु के पहले बयान लिया जाए ।

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मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यकित की बयान मौखिक हो सकता है या फिर लिखित । जहां तक मौखिक बयान की बात है, तो इसका महत्व या इसको मरने वाले व्यक्ति को सुनाने और विस्तार से इसे बताने का मुद्दा नहीं बनता । गणपत लाड और अन्य घटनाओं में सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युकालिक यानि मरने वाले व्यकित की कथन का कोई निश्चित प्रारूप (फॉर्मेट) नहीं होने की बात कही ।

इस आर्टिकल में हमने आप को जानिए साक्ष्य (सबूत) प्रणाली में मरने से पहले दिए गए बयान का मतलब क्या होता है और इस बयान को कैसे ली जा सकती है इसके विषय में विस्तार से जानकारी दी है अगर आप के मन में इस आर्टिकल से संबंधित कोई प्रश्न हैं तो कमेंट के द्वारा पूछ सकते हैं हम आप के द्वारा की प्रतक्रिया का आदर करेगें |

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